अँधेरे में
गहराई रात की अँधेरे में टिमटिमाते तारों को देखता हूँ और याद करता हूँ काल कोठरी में कैद 'दाराशिकोह ' को 'नजरुल ' को भगत सिंह और राजगुरु को और मेरे युग के विनायक सेन को कहीं किसी उपवन में गा रहा है नज़रुल का बुलबुल विरह गीत तभी एका - एक बड़ी -बड़ी आँखों के पीछे से विद्रोही कवि का प्रेमी हलकी मुस्कान लिए खड़े हैं -- फिर विरक्त होकर उठा लेते हैं रणभेरी अपने हाथों में मैं बतियाने लगता हूँ कि-- हे महाप्राण मैं आपके साथ जाना चाहता हूँ युद्ध के मैदान पर फिर सुनने लगता हूँ बहादुरशाह जफ़र की ग़ज़ल " जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ ......." दूर शान्तिनिकेतन से गुरुदेव कह रहें हैं - 'जोदि तोर डाक सुने केऊ ना आसे, तबे एकला चलो रे ' और फिर वेदना भरे दिल से बुदबुदाते हैं गाँधी जी - हे राम -हे राम एक असहाय भक्त की तरह //