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Showing posts from March, 2013

मैं मिला हूँ उस नदी से आज

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एक नदी जो निरंतर बहती है हम सबके भीतर कहीं वह नदी जिसने देखा नही कभी कोई सूखा वह नही जिसे प्यास नही लगी कभी मैं मिला हूँ उस नदी से आज अपने भीतर यदि आप नही मिले अपने भीतर बहते उस नदी से देखा नही यदि उसकी धाराओं को तब छोड़ दो उसे अकेला उसकी लहरों के साथ उन्मुक्त ताकी वह बहती रहे निरंतर कभी मंद न पड़े लहरें उसकी किसी हस्तक्षेप से उसकी धाराओं में जीवन है छोड़ दो उसे अकेला ,ताकि हमारा अहंकार उसे सूखा न दें निगल न लें उसे ईर्ष्या  की बाढ़ ऐसा होने पर बह जायेगा सब कुछ उस पानी में सड़ जायेगी इंसानियत अशुद्ध हो जायेगा नदी का जल ....

पेड़ के पत्ते जब कांपते हैं

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प्रभातकाल की सूर्य किरण मध्यम -मध्यम शीतल पवन पक्षियों का मधुर स्वर मुझे जगाता है पूनम की रात में आकाश का श्रृंगार करती है चन्द्रमा मैं देर पहर तक जगकर देखता हूँ उसे पेड़ के पत्ते जब कांपते हैं चांदनी की स्पर्श से मुझे याद आता है तुम्हारा कांपता शरीर अचानक , उठता है एक भूचाल सागर के तल में सुनामी बनकर आता है और ले जाता है बहाकर सबकुछ तब अहसास होता है सहने की भी होती है एक सीमा .....

मुझसे युद्ध करो मैं विजयी होना चाहता हूँ

न , न मुझे यूँ न छोड़ो  रणभूमि में  दया न करो मुझ पर  मौका दो मुझे  युद्ध का  तुम्हारी दया पर  जीना नही चाहता मैं  मुझसे युद्ध करो  मैं विजयी होना चाहता हूँ  या चाहता हूँ वीरगति  मैं दया की भीख नही चाहता  जीवनदान का कर्ज नही चाहता  न  ही चाहता हूँ चुपचाप स्वीकार  करूं  तुम्हारी श्रेष्ठता  आओ युद्ध करो मुझसे  मुझे पराजित करों .........