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Showing posts from 2013

मैं बोका निकला इस बार भी

उठते देखा   ढलते देखा   अपना रुख बदलते देखा   लड़ते देखा   फिर मैदान से भागते देखा   तुम्हें योद्धा कहूँ   या रणछोड़ .. चलो .... कुछ नही कहना   यहाँ मौजूद हैं   वीरों के वीर   जिनके पास हैं नैतिकता , ईमानदारी , सत्य के प्रवचन   सिर्फ औरों के लिए   गिरगिट ने पहचान लिया था इन्हें   मुझसे पहले   अच्छा .... अब ठीक है   मैं बोका निकला इस बार भी

पतझड़ में

आदमी कब मरता है किसी मुल्क में  वहाँ एक नागरिक मरता है हर बार मृत्यु के साथ चरित्र नही मरा करता केवल मिटता है एक देह हर बार पतझड़ में पेड़ कहाँ सूखते हैं बस झड़ जाते है पत्ते हर बार

'तुम सही हो ...'

उन्हें मालूम है  क्या गलत क्या सही  कौन निर्दोष, कौन दोषी  मेरे कान में कहा - 'तुम सही हो ...' मैं खुश हुआ  सोचकर कि नहीं अकेला मैं ... पर , फिर पता चला  उधर भी  यही कहा गया .......

भाग्य की रेखाएं

मेहनती हाथों में नही दिखतीं भाग्य की रेखाएं इनमें बचपन से ही पड़ जाती हैं दरारें ये दरारें खुद ही लिखतीं हैं कहानी अपनी किस्मत की अक्सर ऐसे हाथ वालें लोगों की पीठ पर बरसती हैं लोकतांत्रिक देश की पुलिस की लाठियां छाती से टकरातीं हैं गोलियाँ | फिर भी कभी कम नही होती   इन हाथों की संख्या दो गिरते हैं तो खड़े हो जाते हैं दस –दस हाथ मुल्क भी जानता है इस सत्य को कि टिका हुआ है उसका भाग्य और भविष्य इन्ही भाग्य –रेखा विहीन हाथों की मेहनत में उर्वर है उसकी जमीन इनके पसीने की धार से .....

सत्ता के लिए शतरंज चल रहा है

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भूखे का पेट जल रहा है  दंगों की आग में देखो  मुल्क जल रहा है  ऐसे ही नेताजी का घर चल रहा है  उसका विरोध हो रहा है  इनका समर्थन हो रहा है  सत्ता के लिए शतरंज चल रहा है  मंहगाई बढ़ रही है  इसे रोकने के लिए आयात हो रहा है निर्यात हो रहा है बस , आदमी बिक रहा है आदमी बेच रहा है क्रोध से मेरा तन -मन जल रहा है किसी तरह मेरा देश चल रहा है ..... चित्र -गूगल से साभार 

वो पुराना मिटटी का घर

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আমার গ্রামের সেই পুরনো মাটির ঘর আজ ও দাড়িয়ে আছে ওই ঘরের দেয়ালে লুকিয়ে আছে অনেক -অনেক স্মৃতি আমাদের বংশের পুরনো ইতিহাস টিকটিকি , মাকসা আরও অনেক জীব প্রতিদিন পড়ে আমাদের সেই ইতিহাস এই ঘর করেছে ভোগ অনেক ঝড় -বৃষ্টি তবুও পড়েনি ভেঙ্গে আজ ও দাড়িয়ে আছে স্মৃতির বল নিয়ে এক যোদ্ধার মত ওই বৃদ্ধ ঘর জানে পড়ে গেলে ভেঙ্গে যাবে সুখ - দু:খ, কান্না -হাসির সব গল্প তাই সে দাড়িয়ে আছে আজ ও কোনো বৃধ্য পর্বতের মত উঠুনের গাছেরা তাকে বাতাস করে বৃষ্টি দেয় জল তাপ দেয় রোদ পাখিরা সোনায় গান জ্যোত্স্না দেয় নতুন স্বপ্ন। ........ -নিত্যানন্দ গায়েন (हिंदी अनुवाद-अनुवादक :- सरोज सिंह) मेरे गाँव का वो पुराना मिटटी का घर आज भी खड़ा है उस घर की दीवारों पर छिपी हुई है अनेकोअनेक स्मृतियाँ और हमारे वंश का पुराना इतिहास छिपकली,मकड़ी,और भी अनेक जीव पढ़ते हैं रोज हमारा वही इतिहास ये घर कई मुश्किलों से गुज़रा है अंधड़- वर्षा तब भी ढहा नहीं आज भी वो खड़ा है स्मृतियों के बल पर एक योद्धा की तरह !! वो बूढ़ा घर जानता है उसके गिरते ही ढह जायेगा सुख-दुःख, रोना-हँसना ,सारी बातें इसलिए वो आज भी खड़ा है किसी

इन्हें मालूम है तस्वीरें बोला नही करती ..

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बापू ..तुम्हें  राज घाट पर आज उन्होंने दी पुष्पांजलि बड़ी देर बाद उन्हें तुम याद आये जब भी हुआ खतरा उनकी कुर्सी पर लगा कर तस्वीर तुम्हरी  सभाएं की उन्होंने  सत्ता के लिए गांधीवादी घोषित किया खुद को | तुम्हारी एक तस्वीर इन सभी ने लगा रखी है अपने -अपने कार्यालयों में ठीक अपनी कुर्सी के पीछे  वहीं बैठ कर सरेआम वे करते हैं  चोरियाँ, लेते हैं घूस  समझ नही पाये वे  आपकी मुस्कान के पीछे छिपी वेदना को | इन्हें मालूम है तस्वीरें बोला नही करती ..

खोजता हूँ एक जंगल

धम्म स्स्स SSSS.... भूस्म ....भौं ..भौं  गर्र... गर्रर ....... हूस्स ...धत्त .... जी हाँ ,इनदिनों  कुछ ऐसी ही भाषा में  बात कर रहे हैं मेरे समाज में लोग  आपकी तरह  मैं भी सुनता हूँ  पर उस समय मैं खोजता हूँ एक जंगल अपने आसपास मैं कुछ जानवर खोजता हूँ मन करता है जंगल में जाकर खींचू उनकी कुछ तस्वीरें तस्वीर खींचते हुए मुझे देख वे समझ लेंगे मैं आया हूँ इक्कीसवीं सदी की इंसानी जंगल से |

आंसुओं का सैलाब है

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खोये हुए लोग  अभी घर नही पहुंचे  उनकी चिंता है  कि मंदिर में  पूजा कब शुरू हो  अपनों से बिछड़े हुए  लोगों की आँखों में  आंसुओं का सैलाब है वे खुश हैं कि मंदिर सही -सलामत खड़ा है उजड़ गये सैकड़ों परिवार और वे खरीद रहे हैं दीये का तेल माँ के दूध के लिए तड़प रही है बच्ची और वे कर रहे हैं टीवी पर बहस प्रलय से अधिक हम पर व्यवस्था भारी है हम लाचार -असहाय हैं आज भी पहले की तरह ....?

पहाड़ की माँ ---------------

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सीता  पांच बच्चों की माँ है  पार चुकी है पैंतालीस वर्ष  जीवन के  दार्जिलिंग स्टेशन पर  करती है कुली का काम  अपने बच्चों के भविष्य के लिए | सिर पर उठाती है भद्र लोगों का भारी -भारी सामान इस भारी कमरतोड़ महंगाई में वह मांगती है अपनी मेहनत की कमाई बाबुलोग करते उससे मोलभाव कईबार हड़तालों में मार लेती है पेट की भूख | योजना आयोग के 'आहलुवालिया' नही जानता है इस माँ को पर वह नही करती समझौता अपने स्वाभिमान से वह सिर्फ मेहनत की कमाई चाहती है मेरा सलाम पहाड़ की इस माँ को ................. चित्र -गूगल से साभार 

ये किस पक्ष के लोग हैं ...?

कठिन वक्त पर खामोश रहना  मासूमियत नही  कायरता है  और  वे सब खामोश रहें  अपने -अपने बचाव में  और वक्त को बनाया ढाल  खामोशी के पक्ष में  जब बोलना था  तब कुछ न बोले  जब भी बोले अपने बचाव में बोले ये किस पक्ष के लोग हैं ...?

मैं खोज रहा हूँ भाषा

मैं तो बस देखता रहा  तुम्हारा चेहरा  तुम्हे पढता रहा  पता चला तुम्हे  क्या पढ़ा मैंने  तुम्हारे चेहरे पर ? कुछ वक्त दो  मैं खोज रहा हूँ भाषा  तुम्हे प्रेम पत्र लिखूंगा ....

मैंने पहचान लिया है खुद को ....

तुम्हारे पक्ष में  मैंने नही की बात  यही गुनाह किया है  दरअसल मैंने कुछ देर से  पहचाना तुम्हारा चेहरा  नकाब उतारने में  कुछ वक्त लगा है मुझे  इसलिए नही दोहराया  मैंने अपनी गलती को  तुम्हे अफ़सोस है मेरी बेवफाई पर पर मुझे संतोष है तुम्हारे साथ -साथ मैंने पहचान लिया है खुद को ....

তুমি আসবে তো ..?

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আবার আঁকবো  একটি সুন্দর ছবি  থাকবে মুখে  মোনালিসা হাসি  প্রভাতের সূর্যের কিরণের মত  তুমি আসবে তো  আমার সেই ছবি হতে ? -------------------------- चित्र -गूगल से साभार 

अभी तो उन तारों का आभार

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सुबह उठकर करूँगा  रात का शुक्रिया अदा  अभी तो उन तारों का आभार  जो जाग रहे हैं मेरे साथ  ख़ामोशी का आभार  जिसने सजाने दिया एक नया ख्याल  जिंदगी के लिए .... चित्र -गूगल से साभार 

সোনার হরিন

সে যে কখনো বলেনি   সোনার হরিনের কথা  ছিলনা তার কাছে কোনো রাম  ফাটেনি কোনো পৃথিবীর বুক  রাবন করেনি তার হরণ  জালিয়ে মেরেছে তাকে  তার নিজের জন .....

मैं मिला हूँ उस नदी से आज

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एक नदी जो निरंतर बहती है हम सबके भीतर कहीं वह नदी जिसने देखा नही कभी कोई सूखा वह नही जिसे प्यास नही लगी कभी मैं मिला हूँ उस नदी से आज अपने भीतर यदि आप नही मिले अपने भीतर बहते उस नदी से देखा नही यदि उसकी धाराओं को तब छोड़ दो उसे अकेला उसकी लहरों के साथ उन्मुक्त ताकी वह बहती रहे निरंतर कभी मंद न पड़े लहरें उसकी किसी हस्तक्षेप से उसकी धाराओं में जीवन है छोड़ दो उसे अकेला ,ताकि हमारा अहंकार उसे सूखा न दें निगल न लें उसे ईर्ष्या  की बाढ़ ऐसा होने पर बह जायेगा सब कुछ उस पानी में सड़ जायेगी इंसानियत अशुद्ध हो जायेगा नदी का जल ....

पेड़ के पत्ते जब कांपते हैं

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प्रभातकाल की सूर्य किरण मध्यम -मध्यम शीतल पवन पक्षियों का मधुर स्वर मुझे जगाता है पूनम की रात में आकाश का श्रृंगार करती है चन्द्रमा मैं देर पहर तक जगकर देखता हूँ उसे पेड़ के पत्ते जब कांपते हैं चांदनी की स्पर्श से मुझे याद आता है तुम्हारा कांपता शरीर अचानक , उठता है एक भूचाल सागर के तल में सुनामी बनकर आता है और ले जाता है बहाकर सबकुछ तब अहसास होता है सहने की भी होती है एक सीमा .....

मुझसे युद्ध करो मैं विजयी होना चाहता हूँ

न , न मुझे यूँ न छोड़ो  रणभूमि में  दया न करो मुझ पर  मौका दो मुझे  युद्ध का  तुम्हारी दया पर  जीना नही चाहता मैं  मुझसे युद्ध करो  मैं विजयी होना चाहता हूँ  या चाहता हूँ वीरगति  मैं दया की भीख नही चाहता  जीवनदान का कर्ज नही चाहता  न  ही चाहता हूँ चुपचाप स्वीकार  करूं  तुम्हारी श्रेष्ठता  आओ युद्ध करो मुझसे  मुझे पराजित करों .........

उन्होंने कहा - देशद्रोही मुझे

मैंने पढ़ी थी  सिर्फ एक कविता 'विद्रोही ' कवि की  'बलो वीर ' उन्होंने कहा - देशद्रोही मुझे  मुझे आई हंसी  और उन्हें क्रोध ....

हरियाली की खोज में

चैत के महीने में हरियाली की खोज में निकला फट चूका है धरती का सीना कुछ दिलों के दरमियाँ भी पड़ चुकी हैं दरारें ऋतु का प्रभाव अब रिश्तों में है यहाँ भी सूखा पड़ चूका है | मैं खोजने निकला दिलों में हरियाली पहले देखा खुद का दिल बहुत तेजी से धड़क रहा था फिर देखा सगे-सम्बंधी और यारों का दिल यहाँ कुछ के दिलों में मुस्कुरा रहे थे रंग –विरंगे फूल –कलियाँ कहीं –कहीं असर था मौसम और प्रदूषण का फिर गया सत्ता की गलियारों में यहाँ नही पड़ा था कोई असर चैत की गर्मी का सब गुलजार था यहाँ नही फटी थी धरती ऊपर से हरी थीं घास बस , उनपर थीं लहू की छींटे .....