मैं मिला हूँ उस नदी से आज
एक नदी
जो निरंतर बहती है
हम सबके भीतर कहीं
वह नदी जिसने
देखा नही कभी कोई सूखा
वह नही जिसे प्यास नही लगी कभी
मैं मिला हूँ उस नदी से आज
अपने भीतर
यदि आप नही मिले
अपने भीतर बहते उस नदी से
देखा नही यदि उसकी धाराओं को
तब छोड़ दो उसे अकेला
उसकी लहरों के साथ उन्मुक्त
ताकी वह बहती रहे निरंतर
कभी मंद न पड़े लहरें उसकी
किसी हस्तक्षेप से
उसकी धाराओं में जीवन है
छोड़ दो उसे अकेला ,ताकि
हमारा अहंकार उसे सूखा न दें
निगल न लें उसे
ईर्ष्या की बाढ़
ऐसा होने पर
बह जायेगा सब कुछ
उस पानी में सड़ जायेगी इंसानियत
अशुद्ध हो जायेगा नदी का जल ....
इस नदी में गीलापन रहना जरूरी है ...
ReplyDeleteइंसानियत रहना जेरूरी है ...
एकदम सही . शुक्रिया सर . सादर
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